मंगलवार, 27 फ़रवरी 2007

जादूगर

रूमी को पैदा हुये लगभग आठ सौ बरस हुए जाते हैं। तब से लेकर आज तक दुनिया में ग़ज़ल, शायरी और सूफ़ी संस्कृति के बारे मे हम जो भी देखते हैं.. उसके सीधे तार रूमी से जुड़ते हैं। हाँलाकि रूमी से पहले भी अरबी में इब्न फ़रीदी, इब्न अरबी और अल ग़ज़ाली व फ़ारसी में मन्सूर हल्लाज और फ़रीदुद्दीन अत्तार हो चुके थे, जिन्होने सूफ़ी दर्शन और काव्य की नीँव रखी। मगर अनल हक़ कह के सूली पर चढ़ने वाले मन्सूर हों या परिन्दों की महासभा की रूपात्मक दास्तान लिखने वाले अत्तार, रूमी से पहले सूफ़ी साहित्य मे दर्शन का पुट ज़्यादा था और काव्य का कम। माशूक़ से विरह और मिलन की उत्कण्ठा, जो आगे चल कर शायरी की केंद्रीय विषयवस्तु बन जाती है, रूमी में ही पूरी तरह परिपक्व हो कर मिलती है। रूमी इसीलिये महत्वपूर्ण हैं। इनको पढ़ते हुये ऐसा लग सकता है कि बड़ी सुनी सुनाई बात है, नया कुछ भी नही। वो शायद इसलिये कि तब से लेकर साठ साल पहले तक हर शायर रूमी को पढ़ कर ही जवान होता था.. फ़ारसी पढ़ने की रवायत तो पिछले साठ सालों में छूटी है नहीं तो आज भी मुहावरा क़ायम है- पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या। आज जो दबदबा अंग्रेजी का है मध्यकाल में वही फ़ारसी का था। मध्य एशिया को लेते हुये बंगाल से लेकर बग़दाद तक सरकारी कामकाज और ज्ञान विज्ञान, दोनों की भाषा फ़ारसी ही थी।


जादूगर

जादूगर तुम अनोखे हो निराले हो.।
शिकारी, शिकार को बनाने वाले हो॥


दो देखने की आदत अपनी बहुत पुरानी*।
जादू चला तुम्हारा हुई आँखें ऐंची तानी ॥


पक गये हो पूरे, शहतूत से हो मीठे।
अंगूर क्या अंगूरी, तेरे लिये सब सीठे॥

मिमियाते थे जो अब तक जम कर गरज रहे हैं।
कैसे मोगरे के तन से गुलाब जम रहे हैं॥


तन के चलने वाले जाते हैं सर झुकाये।
खामोश रहने वाले अब हैं आस्मां उठाये॥


जहालत मे क़ैद थे जो हो गये हैं ग्यानी।
संजीदा हो गये हैं जादू से आसमानी॥


जो तलवार साजते थे कल जंगे मिदान में।
अब लफ़्ज़ों के वार करते और सिर्फ़ कान में॥


जादू चला है तेरा चींटी का वक़्त आया।
खौफ़ मे हैं हाथी जो उनको सदा सताया॥


जादू न समझो इसको, ज़ुल्म से है जंग।
बदल रहे हैं देखो, तक़दीर के वो ढंग॥


लफ़्ज़ो मे मत उलझना, ताकीद है ये उनकी।
याद रहे हमेशा, बस सुनो ज़बान हक़ की॥






* यहाँ द्वैत और अद्वैत की बात है। अद्वैत को इस्लाम में तौहीद कहा जता है। नयी नयी अद्वैत की समझ आने पर हुई उथल पुथल को आँखों के भैंगेपन से जोड़ा है।

इस ग़ज़ल में रूमी, शम्स के ज़रिये मुरीदों के अन्दर हुए रासायनिक परिवर्तन का बयान कर रहे हैं कि किस तरह रूहानी इल्म होने हर चीज़ अपने मूल स्वभाव को छोड़ कर उलट व्यवहार करने लगती है। दूसरे अर्थों में जो आम तौर पर मूल स्वभाव नज़र आता है, वो नहीं है। मूल स्वभाव सारे जगत का एक ही है। ऐसी उलटबासियाँ आगे चलकर कबीर ने भी की हैं। योगशास्त्र में भी आत्मज्ञान के मार्ग पर ऐसे पड़ावों की चर्चा कुछ विद्वानों ने की है।

2 टिप्‍पणियां:

Divine India ने कहा…

रुमी का प्रेम आग्रह पुकार का रुप था जो ख़ुदा को महबूब मानकर उसके गीत गाता था… सुंदर शैली में व्याख़्या की है आपने…।ज्ञान की बाते भी जानने को मिलीं…धन्यवाद!!!

बेनामी ने कहा…

rumi ko padhane ka mauka mila hamari apni bhaashaa mein.... achcha laga...
khubasooat bhi hai iska lay out.
aur sabsey achcha hai ism-e-ghareeb.

farid