रूमी की एकमात्र गद्य में लिखी रचना फ़ीही मा फ़ीही (जो है सो है), रूमी के अपने शिष्यों के साथ बैठ कर किये विचारविमर्श का संकलन है.. ऐसे आध्यात्मिक वार्तालाप मौसिकी शायरी और समा की महफ़िलों के बाद शक्ल लेते थे। आम तौर पर दुर्लभ इस किताब को १९६१ में ए. जे. आर्बेरी ने अंग्रेज़ी में अनूदित किया है, उसी अनुवाद से मैं इसे हिन्दी में रूपान्तरित कर रहा हूँ। किताब में कुल इकहत्तर वार्तालाप हैं । यह दूसरे वार्तालाप का अनुवाद है। बीच बीच मे उद्धरण चिह्नो के बीच क़ुरान की आयतों का उल्लेख है।
किसी ने कहा: "हमारे मुर्शिद एक लफ़्ज़ भी नहीं बोलते"।
रुमी ने जवाब दिया: मगर जो तुम्हे मुझ तक ले कर आया वो मेरा खयाल था और उस खयाल ने भी तो तुम से नहीं बोला कि भई खैरियत से तो हो? बिना लफ़्ज़ों के खयाल तुम्हे यहाँ खींच लाया। मेरी हक़ीक़त तुम्हे बिना लफ़्ज़ों के खींचती है और एक जगह से दूसरी जगह ले जाती है तो क्या धरा है लफ़्ज़ों में? लफ़्ज़ तो हक़ीक़त की परछाई भर हैं, हक़ीक़त की महज एक शाख। जब परछाई खींच सकती है तो हक़ीक़त कितना खींचेगी!
लफ़्ज़ सिर्फ़ बहाना हैं। असल में ये अन्दर का बंधन है जो एक शख्स को दूसरे से जोड़ता है, लफ़्ज़ नहीं। कोई लाखों करिश्मे और खुदाई रहमतें भी क्यों न देख ले अगर उस फ़क़ीर या पैग़म्बर के साथ कोई तार नहीं जुड़ा है तो करिश्मों से कोई फ़रक नहीं पड़ने वाला। ये जो अन्दर का तत्व है यही खींचता और चलाता है...अगर लकड़ी में पहले से ही आग का तत्व मौजूद नहीं है तो आप कितना भी दियासलाई लगाते रहिये.. वो नहीं जलेगी। लकड़ी और आग का सम्बंध गुप्त है, आँख से नहीं दिखता।
ये खयाल है जो हमे ले जाता है। बग़ीचे का खयाल हमे बग़ीचे मे ले जाता है। दुकान का खयाल हमे दुकान मे ले जाता है। हाँलाकि इन खयालों मे एक धोखा भी छिपा है। तुम क्या ऐसी किसी जगह नहीं गये हो जिसके बारे मे खयाल तो अच्छा आया था मगर जाकर निराश होना पड़ा? ये खयाल लबादे की तरह होते हैं और इन लबादों में कोई छिपा होता है। जिस दिन हक़ीक़त तुम्हे अपनी ओर खींचती है खयालों का लबादा ग़ायब हो जाता है, फिर कोई निराशा नहीं होती। तब तुम हक़ीक़त को जस का तस देखते हो, और कुछ भी नहीं।
"वह दिन जब रहस्यों का इम्तिहान होता है"
तो, मेरे बोलने का क्या सबब है? हक़ीक़त में हमे जो खींचती है वो एक ही बात है लेकिन देखने में कई नज़र आती हैं। हमें तमाम ख़्वाहिशों ने जकड़ा हुआ है। मुझे बिरयानी चाहिये, मुझे हलवा चाहिये, खीर चाहिये, हम कहते ही रहते हैं। चीज़ों के नाम एक एक करके गिनाते हैं हम, मगर मूल में एक ही बात है; मूल में भूख है। जैसे ही हमारा पेट भरता है हम हाथ खड़े कर देते हैं-नहीं अब बस। तो कोई दर्ज़न या सैकड़ों का मामला नहीं है, एक ही चीज़ हमें खींचती है।
"और उनकी तादाद हमने सिर्फ़ इम्तिहान के लिये बनाई है"
इस जहान की बहुधा चीज़ें खुदा ने इम्तिहान के लिये बनाई हैं, क्यूंकि वो हक़ीक़त के एकलत्व को छिपाती हैं। एक कहावत है कि दरवेश एक और आदम ज़ात सौ, मतलब यह कि दरवेश का सारा ध्यान सिर्फ़ एक हक़ीक़त पर होता है जबकि आम लोग सौ शकलों में बिखरे होते हैं। पर कौन से सौ, कौन से पचास, कौन से साठ? इस दुनिया के आईनो के अक्सों में ग़ुम किसी जादुई तावी़ज़ की या पारे की मानिन्द थरथराते ये बेचेहरा लोग बिना हाथ पैरों के, बिना दिमाग़ और आत्मा के हैं। नहीं जानते कि ये कौन हैं। उन्हे पचास कहो साठ कहो या सौ; दरवेश एक है। मगर क्या यह सोच भी एक इम्तिहान नहीं है। क्योंकि सच ये है कि सौ कुछ भी नहीं जबकि दरवेश तो हज़ार है, लाख करोड़ है।
एक दफ़े एक राजा ने किसी एक सिपाही को सौ आदमियों की रसद दे दी। सेना में इसका विरोध हुआ लेकिन राजा चुप रहा। जब लड़ाई का रोज़ आया तो बाकी सब जान बचा के भागे बस एक वही सिपाही अकेला लड़ता रहा। "देखा", राजा बोला, "इसीलिये मैनें इसे सौ आदमियों की तरह खिलाया"।
इसलिये लाज़िम है कि हम अपनी सारे पूर्वाग्रह छोड़कर उसे तलाशें, जिसका भगवान से परिचय है। मगर जब हम अपना पूरा जीवन ऎसे लोगों की सोहबत में गुज़ार देते हैं जिनके अन्दर कोई विवेक ही नहीं, तो हमारा स्वयं का विवेक भी कमज़ोर पड़ जाता है, और ऎसा शख्स हमारे पास से गुज़र जाता है और हम उसे पहचान नहीं पाते।
विवेक एक ऎसा गुण है जो हमेशा आदमी के अन्दर छिपा होता है। देखते नहीं कि बावलों के हाथ पैर तो होते हैं लेकिन विवेक नहीं होता ? विवेक तुम्हारे अन्दर का सूक्ष्म सत्व है। फिर भी, दिन और रात तुम भौतिक रूप के लालन पालन में मशगूल रहते हो, जो सही और ग़लत का फ़र्क नहीं जानता। क्यों तुमने अपनी सारी ऊर्जा भौतिक की, स्थूल की देखभाल मे लगा रखी है, और सूक्ष्म को पूरी तरह से नज़र अन्दाज़ कर रखा है? स्थूल का अस्तित्त्व सूक्ष्म से है लेकिन सूक्ष्म किसी भी तौर पर स्थूल पर निर्भर नहीं है।
आँखों और कानों की खिड़कियों से जो नूर चमकता है- अगर ये खिड़कियां न भी होती, नूर तो भी होता। वो चमकने के लिये दूसरी खिड़कियां पा लेता। सूरज के आगे चराग़ करके क्या तुम कभी कहते हो," मुझे चराग़ की रोशनी में सूरज दिख रहा है"? खुदा न करे! अगर तुम चराग़ ना भी दिखाओ, सूरज फिर भी चमकेगा। फिर चराग़ की ज़रूरत क्या है?
राजाओं के साथ मेलजोल में एक खतरा है। सर कटने का नहीं- ज़िन्दगी एक रोज़ खत्म होनी ही है- आज हो कल हो फ़र्क नहीं पड़ता। खतरा इस बात से पैदा होता है कि जब राजा परदे पर आता है और उसके प्रभाव की माया ज़ोर पकड़ती है, चराग़ की तरह, तो साथ रहने वाला शख्स जो उनसे दोस्ती रख रहा है, उनसे तोहफ़े कबूल कर रहा है, निश्चित ही उनकी इच्छाओं के मुताबिक बोलने लगेगा। वो शख्स राजा के सांसारिक विचारों को ध्यान देकर सुनेगा और नकार भी ना सकेगा।
खतरा यहीं है, और ये इतना बढ़ेगा कि सच्चे स्रोत के प्रति एहतराम और धूमिल होता जायेगा। जब तुम राजा में रुचि लेने लगते हो तो वो दूसरी रुचि, जो बुनियादी है तुम्हारे लिये अजनबी होती जाती है। जितना तुम राजा के रास्ते पर चलोगे माशूक़ की गलियों का रास्ता उतना ही भूलते जाओगे। जितना सांसारिक लोगों के साथ समझौते करोगे, माशूक़ तुम से उतना ही रूठता जायेगा। उन की दिशा मे जाना तुम्हे उनकी सत्ता के मातहत करता जाता है। एक दफ़ा उन के रास्ते पर में दाखिल हो जाने से भगवान उनको तुम्हारे ऊपर अधिकार दे देता है।
दुख की बात होगी कि समन्दर तक पहुँचकर भी आदमी मटके भर मे ही संतोष कर ले। अरे समन्दर मोतियों और दूसरी न जाने कितनी बेशकीमती चीजों से भरा पड़ा है। सिर्फ़ पानी भर लेने में क्या होगा? कौन बुद्धिमान आदमी इस बात पर गर्व कर सकेगा? यह संसार उस महासागर के झाग का ज़रा सा क़तरा भर है। वह महासागर दरवेशों का विज्ञान है जिसके पानी में मोती स्वयं मौजूद है।
संसार कुछ नहीं उड़ता हुआ, बहता हुआ झाग है। सागर की अबाध गति और लहरों की आवाजाही से झाग एक सुन्दर रूप अख्तियार कर लेता है। लेकिन ये सौन्दर्य उधार का है। ऎसा खोटा सिक्का है जो आपकी आँखों को चौंधियाता है।
इन्सान खुदा के अस्तरलाब* हैं, मगर अस्तरलाब को इस्तेमाल करने के लिये खगोलविद चाहिये। कोई पर्चूनी कोई ठेलेवाला अस्तरलाब पा भी जाय, तो उस से उनका क्या भला होगा। उस अस्तरलाब से वो सितारों की गति या ग्रहों के स्थिति आदि कुछ भी ना जान सकेंगे। एक खगोलविद के हाथ में आकर ही अस्तरलाब का अस्तित्त्व सिद्ध होता है ।
जैसे ताम्बे का अस्तरलाब आकाशीय गतियों को दर्शाता है.. वैसे ही आदमी भी खुदा का अस्तरलाब है।
"हमने आदम के बच्चों को इज़्ज़त बख्शी"
वे जो खुदा के द्वारा प्रचालित हो कर हक़ीक़त को एकलता में देख पाते हैं और अपने अस्तित्त्व के अस्तरलाब के ज़रिये उसके तरीक़ो को सीख पाते हैं, ईश्वर के विधान को हर क्षण हर पल एक एक लम्हे को देखते हैं। और यक़ीन मानो ये एक ऎसा अनन्त हुस्न है जो उन के आईने से कभी नहीं हटता।
खुदा के ये खिदमतगार अपने ज्ञान, काबलियत और सलीक़े पर परदा डाले रहते हैं। खुदा से बेपनाह मुहब्बत और उसके रश्क के सबब से ये खुद को छिपाये रहते हैं, जैसा कि मुतनब्बी ने हसीनों के बाबत कहा है:
पहना रेशम जो उन्होने मगर न सजाने के लिये।
अपने हुस्न को निगाहे हवस से बचाने के लिये॥
किसी ने कहा: "हमारे मुर्शिद एक लफ़्ज़ भी नहीं बोलते"।
रुमी ने जवाब दिया: मगर जो तुम्हे मुझ तक ले कर आया वो मेरा खयाल था और उस खयाल ने भी तो तुम से नहीं बोला कि भई खैरियत से तो हो? बिना लफ़्ज़ों के खयाल तुम्हे यहाँ खींच लाया। मेरी हक़ीक़त तुम्हे बिना लफ़्ज़ों के खींचती है और एक जगह से दूसरी जगह ले जाती है तो क्या धरा है लफ़्ज़ों में? लफ़्ज़ तो हक़ीक़त की परछाई भर हैं, हक़ीक़त की महज एक शाख। जब परछाई खींच सकती है तो हक़ीक़त कितना खींचेगी!
लफ़्ज़ सिर्फ़ बहाना हैं। असल में ये अन्दर का बंधन है जो एक शख्स को दूसरे से जोड़ता है, लफ़्ज़ नहीं। कोई लाखों करिश्मे और खुदाई रहमतें भी क्यों न देख ले अगर उस फ़क़ीर या पैग़म्बर के साथ कोई तार नहीं जुड़ा है तो करिश्मों से कोई फ़रक नहीं पड़ने वाला। ये जो अन्दर का तत्व है यही खींचता और चलाता है...अगर लकड़ी में पहले से ही आग का तत्व मौजूद नहीं है तो आप कितना भी दियासलाई लगाते रहिये.. वो नहीं जलेगी। लकड़ी और आग का सम्बंध गुप्त है, आँख से नहीं दिखता।
ये खयाल है जो हमे ले जाता है। बग़ीचे का खयाल हमे बग़ीचे मे ले जाता है। दुकान का खयाल हमे दुकान मे ले जाता है। हाँलाकि इन खयालों मे एक धोखा भी छिपा है। तुम क्या ऐसी किसी जगह नहीं गये हो जिसके बारे मे खयाल तो अच्छा आया था मगर जाकर निराश होना पड़ा? ये खयाल लबादे की तरह होते हैं और इन लबादों में कोई छिपा होता है। जिस दिन हक़ीक़त तुम्हे अपनी ओर खींचती है खयालों का लबादा ग़ायब हो जाता है, फिर कोई निराशा नहीं होती। तब तुम हक़ीक़त को जस का तस देखते हो, और कुछ भी नहीं।
"वह दिन जब रहस्यों का इम्तिहान होता है"
तो, मेरे बोलने का क्या सबब है? हक़ीक़त में हमे जो खींचती है वो एक ही बात है लेकिन देखने में कई नज़र आती हैं। हमें तमाम ख़्वाहिशों ने जकड़ा हुआ है। मुझे बिरयानी चाहिये, मुझे हलवा चाहिये, खीर चाहिये, हम कहते ही रहते हैं। चीज़ों के नाम एक एक करके गिनाते हैं हम, मगर मूल में एक ही बात है; मूल में भूख है। जैसे ही हमारा पेट भरता है हम हाथ खड़े कर देते हैं-नहीं अब बस। तो कोई दर्ज़न या सैकड़ों का मामला नहीं है, एक ही चीज़ हमें खींचती है।
"और उनकी तादाद हमने सिर्फ़ इम्तिहान के लिये बनाई है"
इस जहान की बहुधा चीज़ें खुदा ने इम्तिहान के लिये बनाई हैं, क्यूंकि वो हक़ीक़त के एकलत्व को छिपाती हैं। एक कहावत है कि दरवेश एक और आदम ज़ात सौ, मतलब यह कि दरवेश का सारा ध्यान सिर्फ़ एक हक़ीक़त पर होता है जबकि आम लोग सौ शकलों में बिखरे होते हैं। पर कौन से सौ, कौन से पचास, कौन से साठ? इस दुनिया के आईनो के अक्सों में ग़ुम किसी जादुई तावी़ज़ की या पारे की मानिन्द थरथराते ये बेचेहरा लोग बिना हाथ पैरों के, बिना दिमाग़ और आत्मा के हैं। नहीं जानते कि ये कौन हैं। उन्हे पचास कहो साठ कहो या सौ; दरवेश एक है। मगर क्या यह सोच भी एक इम्तिहान नहीं है। क्योंकि सच ये है कि सौ कुछ भी नहीं जबकि दरवेश तो हज़ार है, लाख करोड़ है।
एक दफ़े एक राजा ने किसी एक सिपाही को सौ आदमियों की रसद दे दी। सेना में इसका विरोध हुआ लेकिन राजा चुप रहा। जब लड़ाई का रोज़ आया तो बाकी सब जान बचा के भागे बस एक वही सिपाही अकेला लड़ता रहा। "देखा", राजा बोला, "इसीलिये मैनें इसे सौ आदमियों की तरह खिलाया"।
इसलिये लाज़िम है कि हम अपनी सारे पूर्वाग्रह छोड़कर उसे तलाशें, जिसका भगवान से परिचय है। मगर जब हम अपना पूरा जीवन ऎसे लोगों की सोहबत में गुज़ार देते हैं जिनके अन्दर कोई विवेक ही नहीं, तो हमारा स्वयं का विवेक भी कमज़ोर पड़ जाता है, और ऎसा शख्स हमारे पास से गुज़र जाता है और हम उसे पहचान नहीं पाते।
विवेक एक ऎसा गुण है जो हमेशा आदमी के अन्दर छिपा होता है। देखते नहीं कि बावलों के हाथ पैर तो होते हैं लेकिन विवेक नहीं होता ? विवेक तुम्हारे अन्दर का सूक्ष्म सत्व है। फिर भी, दिन और रात तुम भौतिक रूप के लालन पालन में मशगूल रहते हो, जो सही और ग़लत का फ़र्क नहीं जानता। क्यों तुमने अपनी सारी ऊर्जा भौतिक की, स्थूल की देखभाल मे लगा रखी है, और सूक्ष्म को पूरी तरह से नज़र अन्दाज़ कर रखा है? स्थूल का अस्तित्त्व सूक्ष्म से है लेकिन सूक्ष्म किसी भी तौर पर स्थूल पर निर्भर नहीं है।
आँखों और कानों की खिड़कियों से जो नूर चमकता है- अगर ये खिड़कियां न भी होती, नूर तो भी होता। वो चमकने के लिये दूसरी खिड़कियां पा लेता। सूरज के आगे चराग़ करके क्या तुम कभी कहते हो," मुझे चराग़ की रोशनी में सूरज दिख रहा है"? खुदा न करे! अगर तुम चराग़ ना भी दिखाओ, सूरज फिर भी चमकेगा। फिर चराग़ की ज़रूरत क्या है?
राजाओं के साथ मेलजोल में एक खतरा है। सर कटने का नहीं- ज़िन्दगी एक रोज़ खत्म होनी ही है- आज हो कल हो फ़र्क नहीं पड़ता। खतरा इस बात से पैदा होता है कि जब राजा परदे पर आता है और उसके प्रभाव की माया ज़ोर पकड़ती है, चराग़ की तरह, तो साथ रहने वाला शख्स जो उनसे दोस्ती रख रहा है, उनसे तोहफ़े कबूल कर रहा है, निश्चित ही उनकी इच्छाओं के मुताबिक बोलने लगेगा। वो शख्स राजा के सांसारिक विचारों को ध्यान देकर सुनेगा और नकार भी ना सकेगा।
खतरा यहीं है, और ये इतना बढ़ेगा कि सच्चे स्रोत के प्रति एहतराम और धूमिल होता जायेगा। जब तुम राजा में रुचि लेने लगते हो तो वो दूसरी रुचि, जो बुनियादी है तुम्हारे लिये अजनबी होती जाती है। जितना तुम राजा के रास्ते पर चलोगे माशूक़ की गलियों का रास्ता उतना ही भूलते जाओगे। जितना सांसारिक लोगों के साथ समझौते करोगे, माशूक़ तुम से उतना ही रूठता जायेगा। उन की दिशा मे जाना तुम्हे उनकी सत्ता के मातहत करता जाता है। एक दफ़ा उन के रास्ते पर में दाखिल हो जाने से भगवान उनको तुम्हारे ऊपर अधिकार दे देता है।
दुख की बात होगी कि समन्दर तक पहुँचकर भी आदमी मटके भर मे ही संतोष कर ले। अरे समन्दर मोतियों और दूसरी न जाने कितनी बेशकीमती चीजों से भरा पड़ा है। सिर्फ़ पानी भर लेने में क्या होगा? कौन बुद्धिमान आदमी इस बात पर गर्व कर सकेगा? यह संसार उस महासागर के झाग का ज़रा सा क़तरा भर है। वह महासागर दरवेशों का विज्ञान है जिसके पानी में मोती स्वयं मौजूद है।
संसार कुछ नहीं उड़ता हुआ, बहता हुआ झाग है। सागर की अबाध गति और लहरों की आवाजाही से झाग एक सुन्दर रूप अख्तियार कर लेता है। लेकिन ये सौन्दर्य उधार का है। ऎसा खोटा सिक्का है जो आपकी आँखों को चौंधियाता है।
इन्सान खुदा के अस्तरलाब* हैं, मगर अस्तरलाब को इस्तेमाल करने के लिये खगोलविद चाहिये। कोई पर्चूनी कोई ठेलेवाला अस्तरलाब पा भी जाय, तो उस से उनका क्या भला होगा। उस अस्तरलाब से वो सितारों की गति या ग्रहों के स्थिति आदि कुछ भी ना जान सकेंगे। एक खगोलविद के हाथ में आकर ही अस्तरलाब का अस्तित्त्व सिद्ध होता है ।
जैसे ताम्बे का अस्तरलाब आकाशीय गतियों को दर्शाता है.. वैसे ही आदमी भी खुदा का अस्तरलाब है।
"हमने आदम के बच्चों को इज़्ज़त बख्शी"
वे जो खुदा के द्वारा प्रचालित हो कर हक़ीक़त को एकलता में देख पाते हैं और अपने अस्तित्त्व के अस्तरलाब के ज़रिये उसके तरीक़ो को सीख पाते हैं, ईश्वर के विधान को हर क्षण हर पल एक एक लम्हे को देखते हैं। और यक़ीन मानो ये एक ऎसा अनन्त हुस्न है जो उन के आईने से कभी नहीं हटता।
खुदा के ये खिदमतगार अपने ज्ञान, काबलियत और सलीक़े पर परदा डाले रहते हैं। खुदा से बेपनाह मुहब्बत और उसके रश्क के सबब से ये खुद को छिपाये रहते हैं, जैसा कि मुतनब्बी ने हसीनों के बाबत कहा है:
पहना रेशम जो उन्होने मगर न सजाने के लिये।
अपने हुस्न को निगाहे हवस से बचाने के लिये॥
4 टिप्पणियां:
bahut khoob.
maza aa gaya.
itni saaf zabaan ki lagata hi nahi ki ye aaj ka saahitya nahi hai.
farid khan
mukarrar
Meera
वेब पर हिन्दी देख कर अच्छा लगता है
हिन्दी वेबसाइट की संख्या भी बढती जा रही है
आज कल काफी कम्पनियाँ भी हिन्दी टूल्स लॉन्च कर रही है
गूगल के समाचार तो हम सबको पता ही होगा , हिन्दी मे सर्च कर सकते है
गोस्ताट्स नमक कंपनी ने भी एक ट्राफिक परिसंख्यान टूल हिन्दी मे लॉन्च किया है
http://gostats.in
इससे जाना जा सकता है की हिन्दी का भविष्य इन्टरनेट पे बहुत अच्छा है
कहाँ थे यार.. अभी तक,, बहुत अच्छा अनुवाद है, क्या वाकई आपने फारसी ३ महीने में सीख ली क्यूंकि मुझे ५ महीने लग गए थे सामान्य फारसी और ये तो ८00 साल पुराना साहित्य है.. अद्भुत, निकाल्सन के बाद इब्राहीम गमार्ड भी अच्छे लगे आपका अनुवाद भी अद्भुत है..
निशांत कौशिक
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