मसनवी की पहली किताब की शुरुआत इसी मुरली के गीत से होती है...सुनो ये मुरली कैसी करती है शिकायत।
हैं दूर जो पी से, उनकी करती है हिकायत(*)॥
काट के लाये मुझे, जिस रोज़ वन से।
सुन रोए मरदोज़न, मेरे सुरके ग़म से॥
खोजता हूँ एक सीना फुरक़त(१) से ज़र्द(२) ज़र्द।
कर दूँ बयान उस पर अपनी प्यास का दर्द॥
कर दिया जिसको वक़्त ने अपनों से दूर।
करे दुआ हर दम यही, वापसी होय मन्ज़ूर॥
मेरी फ़रियाद की तान हर मजलिस(३) में होती है।
बदहाली मे होती है और खुशहाली में होती है॥
बस अपने मन की सुनता समझता हर कोई।
क्या है छिपा मेरे दिल मे, जानता नहीं कोई॥
राज़ मेरा फ़रियादों से मेरी, अलग़ तो नही।
ऑंख से, कान से ये खुलता मगर जो नही॥
तन से जान और जान से तन छिपा नही है।
किसी ने भी मग़र जान को देखा नही है॥
हवा है तान मे मुरली की? नही सब आग है॥
जिसमे नही ये आग, वो तो मुरदाबाद है॥
मुरली के अन्दर आग आशिक की होती है।
आशिक की ही तेज़ी मय में भी होती है॥
हो गई मुरली उसी की यार, पाई जिसमें पीर।
दे दिया उनको सहारा, कर मेरा परदा चीर॥
मुरली सा ज़हर भी दवा भी, किसने देखा है।
हमदर्द सच्चा मुरली जैसा किसने देखा है॥
खूं से भरी राहो से मुरली आग़ाज़(४) करती है।
रूदाद गाढ़े इश्क की मजनूं की कहती है॥
होश से अन्जान वो सब, जो बेहोश नही है।
इस आवाज़ को जाने वो क्या, जिसे कान नही है॥
दर्द ऐसा मिला जो है हर वक्त मेरे साथ।
वक्त ऐसा मिला, हर लम्हा तपिश के साथ॥
बीते जा रहे ये दिन यूँ ही, कोई बात नही।
तू बने रहना यूँ ही, तुझ सा कोई पाक नही॥
जो मछली थे नही, पानी से सब थक गये।
लाचार थे जो, दिन उनके जैसे थम गये॥
न समझेंगे जो कच्चे हैं, पकना किसको कहते हैं।
नहीं ये राज़ गूदे के, छिलका इसको कहते हैं॥
तो हो आज़ाद ऐ बच्चे, क़ैदों से दरारो की।
रहोगे बन्द कब तक, चॉंदी में दीवारो की॥
सागर को भरोगे गागर मे, कितना आएगा?
उमर मे एक दिन जितना भी न आएगा॥
भरो लोभ का गागर, कभी भर पाओगे नहीं।
खुद को भरता मोतियों से, सीप पाओगे नहीं॥
कर दिया जिसका ग़रेबां इश्क ने हो चाक(५)।
लोभ लालच की बुराई से, हो गया वो पाक॥
अय इश्क तू खुशबाश हो और जिन्दाबाद हो।
हमारी सब बीमारी का बस तुझसे इलाज हो॥
तू है दवा ग़ुमान की और है ग़ुरूर की।
तुझसे ही क़ायम है लौ, खिरद(६) के नूर की॥
ये खाक का तन अर्श(७) तक, जाता है इश्क़ से।
खाक का परबत भी झूमता गाता है इश्क़ से॥
आशिको इस इश्क ने ही जान दी कोहे तूर(८) में।
था तूर मस्ती में, व थी ग़शी(९) मूसा हुज़ूर में॥
लबेसुर्ख के यार से ग़रचे मुझे चूमा जाता।
मुझसे भी मुरली सा शीरीं(१०) सुर बाहर आता॥
दूर कोई रहता हमज़बानो से जो हो।
बस हो गया गूँगा, सौ ज़बां वाक़िफ़(११) वो हो॥
चूँकि गुल अब है नही वीरां बगीचा हो गया।
बाद गुल के, बन्द गाना बुलबुलों का हो गया॥
माशूक़ ही है सब कुछ, आशिक़ है बस परदा।
माशूक ही बस जी रहा है, आशिक़ तो एक मुरदा॥
ऐसा न हो आशिक तो इश्क का क्या हाल हो।
परिन्दा वो इक जिसके गिर गए सब बाल(१२) हो॥
होश में कैसे रहूँ मैं, बड़ी मुश्किल में हूँ।
यार को देखे बिना, हर घड़ी मुश्किल में हूँ॥
अरमान है इश्क का, इस राज़ को दुनिया से बोले।
मुमकिन हो ये किस तरह, आईना जब सच न खोले॥
सच बोलता आईना तेरा, सोच क्यूँ नही?
चेहरा उसका ज़ंग से, जो साफ है नही॥
(*) हिकायत : कहानी
(१) फ़ुरक़त : विरह
(२) ज़र्द : पीला
(३) मजलिस : सभा
(४) आग़ाज़ : शुरुआत
(५) चाक : विदीर्ण, फटा हुआ
(६) खिरद : अक़ल, बुद्धि
(७) अर्श : आसमान
(८) कोहे तूर : तूर नाम का पर्वत, जिस पर मूसा को खुदाई नूर के दर्शन हुए
(९) ग़शी : बेहोशी
(१०) शीरीं : मीठा
(११) वाक़िफ़ : जानकार
(१२) बाल : पर, डैने तस्वीरें : रूमी पर केन्द्रित रूसी पत्रिका सुत-रूमी से साभार