गुरुवार, 19 मई 2011

आशिक़ का ख़त

आशिक़ का ख़त

अपने आशिक़ को माशूक़ ने बुलाया सामने
ख़त निकाला और पढ़ने लगा उसकी शान में

तारीफ़ दर तारीफ़ की ख़त में थी शायरी
बस गिड़गिड़ाना-रोना और मिन्नत-लाचारी

माशूक़ बोली अगर ये तू मेरे लिए लाया
विसाल के वक़्त उमर कर रहा है ज़ाया

मैं हाज़िर हूँ और तुम कर रहे ख़त बख़ानी
क्या यही है सच्चे आशिक़ों की निशानी?

बोला वो आशिक़ कि तुम हाज़िर तो यहाँ पर
मुझे अपना वो लुत्फ़२ नहीं मिल रहा मगर

वो जो मुझे तुम से मिला था पार साल
इस दम नहीं हैं जबकि हो रहा विसाल

मैं ने इस फ़व्वारे से पानी पहले पिया है
आँखों व दिल को इस से ताज़ा किया है

फ़व्वारा तो देख रहा हूँ लेकिन पानी नहीं
उस की राह किसी रहज़न ने काट दी कहीं

तो बोली कि मैं नहीं हूँ माशूक़ तुम्हारी
मैं बुल्ग़ार में और चीन में मुराद तुम्हारी

आशिक़ तुम मुझ पर और एक हाल३ पर
हाल जो नहीं है तुम्हारे बस के अन्दर

तो मैं वो कुल नहीं हूँ जो है तेरी चाह
टुकड़ा हूँ बस उसका तू है जिसकी राह४

माशूक़ का घर हूँ मैं, पर हूँ नहीं माशूक़
नक़द होता है इश्क़, होता नहीं सन्दूक़

माशूक़ वो है जो अकेला निराला होता है
तुम्हारी इब्तिदा५ व इन्तिहा६ वही होता है

जब उसे पा जाओ, रहे न कोई इन्तज़ार
वो जो कि है राज़ भी और है नमूदार

. मसनवी मानवी, ज़िल्द तीसरी, १४०६-१९.
. आनन्द
. अवस्था
. यहाँ पर इशारा इश्क़े हक़ीक़ी यानी कुल और इश्क़ ए मजाज़ी यानी टुकड़े से है।
. आरम्भ
. अन्त

सोमवार, 12 मार्च 2007

क़िस्सा ए मसनवी


रूमी की सबसे महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध रचना मसनवी का पूरा नाम मसनवी ए मानवी है। मानवी एक अरबी शब्द है जिसके मायने है आध्यात्मिक या असल..और मसनवी एक दूसरे अरबी शब्द मसनवा से निकल रहा है जो के एक प्रकार के दो पंक्तियों के छ्न्द का नाम है जिसमें दोनों मिसरे तुक में होते हैं। तो हमारी भाषा में इसका अर्थ होगा आध्यात्मिक छ्न्द। मसनवी में कुल छै किताबें हैं और तक़रीबन ३५०० छ्न्द।

मसनवी की रचना रूमी ने अपने जीवन के अन्तिम कालखण्ड में की..और मृत्यु पर्यन्त करते ही रहे..किताब की आखिरी कहानी अधूरी ही है। ये सूफ़ी कथाओं, नैतिक कथाओं और आध्यात्मिक शिक्षाओं का एक सम्मेलन है। रूमी ने खुद मसनवी को धर्म के मूल का मूल का मूल, और क़ुरान की टीका की संज्ञा दी है।

मसनवी की रचना कैसे शुरु हुई इसके बारे में एक रोचक घटना है। रूमी के प्रिय शिष्य हुस्माद्दीन चेलाबी ने एक रोज़ रूमी को अकेले पा कर उन से एक गुज़ारिश की कि हज़रते मौलाना दीवान की ज़िल्द तो खासी मोटी हो गई है.. अगर सनाई और अत्तार की तरह एक ऎसा ग्रंथ लिखा जाता जिसे पढ़कर, आशिक़ सब कुछ भूल कर उसी में मन रमा लेते..ये सुनकर रूमी ने अपनी पगड़ी से चन्द पुरज़े निकालकर चेलाबी के हाथ में थमा दिये..जिसमें मसनवी की पहली किताब का आग़ाज़.. "मुरली का गीत" भी था..

तस्वीर: रूमी पर केन्द्रित रूसी पत्रिका सुत रूमी से साभार

रविवार, 11 मार्च 2007

मुरली का गीत

मसनवी की पहली किताब की शुरुआत इसी मुरली के गीत से होती है...

सुनो ये मुरली कैसी करती है शिकायत।
हैं दूर जो पी से, उनकी करती है हिकायत(*)॥

काट के लाये मुझे, जिस रोज़ वन से।
सुन रोए मरदोज़न, मेरे सुरके ग़म से॥

खोजता हूँ एक सीना फुरक़त(१) से ज़र्द(२) ज़र्द।
कर दूँ बयान उस पर अपनी प्यास का दर्द॥

कर दिया जिसको वक़्त ने अपनों से दूर।
करे दुआ हर दम यही, वापसी होय मन्ज़ूर॥

मेरी फ़रियाद की तान हर मजलिस(३) में होती है।
बदहाली मे होती है और खुशहाली में होती है॥

बस अपने मन की सुनता समझता हर कोई।
क्या है छिपा मेरे दिल मे, जानता नहीं कोई॥

राज़ मेरा फ़रियादों से मेरी, अलग़ तो नही।
ऑंख से, कान से ये खुलता मगर जो नही॥

तन से जान और जान से तन छिपा नही है।
किसी ने भी मग़र जान को देखा नही है॥

हवा है तान मे मुरली की? नही सब आग है॥
जिसमे नही ये आग, वो तो मुरदाबाद है॥

मुरली के अन्दर आग आशिक की होती है।
आशिक की ही तेज़ी मय में भी होती है॥

हो गई मुरली उसी की यार, पाई जिसमें पीर।
दे दिया उनको सहारा, कर मेरा परदा चीर॥

मुरली सा ज़हर भी दवा भी, किसने देखा है।
हमदर्द सच्चा मुरली जैसा किसने देखा है॥

खूं से भरी राहो से मुरली आग़ाज़(४) करती है।
रूदाद गाढ़े इश्क की मजनूं की कहती है॥

होश से अन्जान वो सब, जो बेहोश नही है।
इस आवाज़ को जाने वो क्या, जिसे कान नही है॥

दर्द ऐसा मिला जो है हर वक्त मेरे साथ।
वक्त ऐसा मिला, हर लम्हा तपिश के साथ॥

बीते जा रहे ये दिन यूँ ही, कोई बात नही।
तू बने रहना यूँ ही, तुझ सा कोई पाक नही॥

जो मछली थे नही, पानी से सब थक गये।
लाचार थे जो, दिन उनके जैसे थम गये॥

न समझेंगे जो कच्चे हैं, पकना किसको कहते हैं।
नहीं ये राज़ गूदे के, छिलका इसको कहते हैं॥

तो हो आज़ाद ऐ बच्चे, क़ैदों से दरारो की।
रहोगे बन्द कब तक, चॉंदी में दीवारो की॥

सागर को भरोगे गागर मे, कितना आएगा?
उमर मे एक दिन जितना भी न आएगा॥

भरो लोभ का गागर, कभी भर पाओगे नहीं।
खुद को भरता मोतियों से, सीप पाओगे नहीं॥

कर दिया जिसका ग़रेबां इश्क ने हो चाक(५)।
लोभ लालच की बुराई से, हो गया वो पाक॥

अय इश्क तू खुशबाश हो और जिन्दाबाद हो।
हमारी सब बीमारी का बस तुझसे इलाज हो॥

तू है दवा ग़ुमान की और है ग़ुरूर की।
तुझसे ही क़ायम है लौ, खिरद(६) के नूर की॥

ये खाक का तन अर्श(७) तक, जाता है इश्क़ से।
खाक का परबत भी झूमता गाता है इश्क़ से॥

आशिको इस इश्क ने ही जान दी कोहे तूर(८) में।
था तूर मस्ती में, व थी ग़शी(९) मूसा हुज़ूर में॥

लबेसुर्ख के यार से ग़रचे मुझे चूमा जाता।
मुझसे भी मुरली सा शीरीं(१०) सुर बाहर आता॥

दूर कोई रहता हमज़बानो से जो हो।
बस हो गया गूँगा, सौ ज़बां वाक़िफ़(११) वो हो॥

चूँकि गुल अब है नही वीरां बगीचा हो गया।
बाद गुल के, बन्द गाना बुलबुलों का हो गया॥

माशूक़ ही है सब कुछ, आशिक़ है बस परदा।
माशूक ही बस जी रहा है, आशिक़ तो एक मुरदा॥

ऐसा न हो आशिक तो इश्क का क्या हाल हो।
परिन्दा वो इक जिसके गिर गए सब बाल(१२) हो॥

होश में कैसे रहूँ मैं, बड़ी मुश्किल में हूँ।
यार को देखे बिना, हर घड़ी मुश्किल में हूँ॥

अरमान है इश्क का, इस राज़ को दुनिया से बोले।
मुमकिन हो ये किस तरह, आईना जब सच न खोले॥

सच बोलता आईना तेरा, सोच क्यूँ नही?
चेहरा उसका ज़ंग से, जो साफ है नही॥



(*) हिकायत : कहानी
(१) फ़ुरक़त : विरह
(२) ज़र्द : पीला
(३) मजलिस : सभा
(४) आग़ाज़ : शुरुआत
(५) चाक : विदीर्ण, फटा हुआ
(६) खिरद : अक़ल, बुद्धि
(७) अर्श : आसमान
(८) कोहे तूर : तूर नाम का पर्वत, जिस पर मूसा को खुदाई नूर के दर्शन हुए
(९) ग़शी : बेहोशी
(१०) शीरीं : मीठा
(११) वाक़िफ़ : जानकार
(१२) बाल : पर, डैने


तस्वीरें : रूमी पर केन्द्रित रूसी पत्रिका सुत-रूमी से साभार

बुधवार, 7 मार्च 2007

तुम्हारी मस्तियों लाचारियों का मैं हूँ ग़ुलाम

रूमी कृत फ़ीही मा फ़ीही से वार्तालाप ६९

इन्सान और भगवान के बीच सिर्फ़ दो परदे हैं - सेहत और दौलत- बाकी सारे परदे इन्ही से उपजते हैं। जो सेहतमंद हैं वे ना तो भगवान को खोजते हैं और न उसे पाते हैं.. मगर जैसे ही दर्द की मार पड़ती है.. वो चिल्ला उठते हैं.. "हे भगवान, या खुदा, ओह गॉड".. भगवान की शरण की पुकार करने लगते हैं। लिहाज़ा, सेहत उनका परदा है और भगवान उनके दर्द मे छिपा है।

जब तलक लोगों के पास दौलत होती है, वे अपनी कामनाओं की प्यास बुझाने मे लगे रहते हैं, रात और दिन सुख मे डूबे रहते हैं। जैसे ही कंगाली के पैर पड़ते हैं, उनके उत्साह ठंडे पड़ जाते हैं और वे भगवान का रुख करते हैं।

कंगाली नशाख़ोरी लाई है तुमको यहां।
तुम्हारी मस्तियों लाचारियों का मैं हूँ ग़ुलाम॥

खुदा ने फिरौन को चार सौ बरस की उमर, सल्तनत और सुख दिया। वो सब एक परदा था, जिसने उसे खुदा के वुजूद से दूर रखा। उसे दर्द और तकलीफ़ का एक दिन भी नहीं देखना पड़ा, ताकि वो खुदा को पूरी तरह से भूला रहे। खुदा ने कहा, डूबे रहो अपनी तमन्नाओं में, और मेरे बारे में सोचो भी मत, शब्बः खैर!


आजिज़ आ गया सुलेमान* अपनी सल्तनत से।
मगर अय्यूब** को राहत न मिली अपने दर्द से॥




*सुलेमान(Solomon) पश्चिमी एशियाई संस्कृति में प्राचीन दुनिया का सबसे नामवर बादशाह था, और बाईबिल मे उसका ज़िक्र विस्तृत है। सुलेमान का नाम ऎश्वर्य और समृद्धि का पर्याय है।
**बाईबिल(पुराना विधान) अलग अलग कालखण्ड में लिखी गई कई किताबों का संकलन है .. अय्यूब(Job) के नाम से एक पूरी किताब है बाईबिल के अन्दर। अय्यूब एक धर्म भीरु और सम्पन्न व्यक्ति था। एक बार शैतान ने ईश्वर से उसकी आस्था के इम्तिहान के अनुमति मांगी, ईश्वर ने दी। उसके बाद अय्यूब पूरे जीवन दुख और तकलीफ़ें ही झेलता रहा पर ईश्वर पर से उसकी आस्था न डिगी।


तस्वीर: टॉम ब्लॉक कृत एक तैल चित्र, कॉपीराइट उन्हीका

शनिवार, 3 मार्च 2007

एक ही रंग सहस पिचकार

हिन्दुस्तानी सूफ़ी परम्परा में बसन्त उत्सव का महत्व तो हज़रत निज़ामुद्दीन के काल से है। हिन्दुस्तान क्या पाकिस्तान में भी ये परम्परा आज तक क़ायम है। बसन्त के अलावा सूफ़ियाना कलाम में होली का भी एक रूपक की तरह खूब इस्तेमाल हुआ है.. जैसे कि हज़रत शाह नियाज़ का ये कलाम;





होरी होय रही है
अहमद जिया के द्वार
हज़रत अली का रंग बनो है
हसन हुसेन खिलाड़
ऎसो होरी की धूम मची है
चहुँ ओर परी है पुकार
ऎसो अनोखो चतुर खिलाड़ी
रंग दीन्यो संसार
नियाज़ पियाला भर भर छिड़के
एक ही रंग सहस पिचकार

गुरुवार, 1 मार्च 2007

पूछते, है इश्क क्या?


वो रूह क्या इश्क जिसकी तबीयत नही।
ना होती तो अच्छा था, होना ग़ैरत नही॥

मस्त रह इश्क में, जो कुछ है इश्क है।
इश्क के ब्योपार बिन, यार का रस्ता नही॥

पूछते, है इश्क क्या, कह खुदी को छोड़ना।
खुद को जीता न हो, तो खुदी कोई नही॥

शाह वो आशिक, आलम दो निसार उस पे।
है ऐसा शाह वो, उनपे नज़र करता नही॥

होगा आशिक सदा और रहेगा इश्क बाकी।
न रख दिल में सिवा इसके, जो मांगा नही॥

लोगे लाश दिलबर की कब तलक आगोश मे।
उस रूह के आगोश में क्यों कोई गिरता नही॥

जन्मा जो बहारो मे, बिखर जाएगा पतझड़ तक।
इश्क के गुलज़ार को, मौसम कोई चहिए नही॥

बहारो मे फूल के साथी तीखे शूल होते है।
सर से उतरे पीर न हो, मय कोई ऐसी नही॥

ठहरकर राह पर इस, बोलता क्या जोहता क्या।
कटे जो इन्तज़ारी में, मौत कोई ऎसी नही॥

साथ सच्चे का पकड़, खोटा नही सिक्का अग़र।
इस मरम पे कान दे, कान जो कच्चा नही॥

तन के घोड़े पे लरजना, छोड़ औ ले राह पैदल।
पर बख्शेगा खुदा उसको, तन पे जो चढता नही॥

फिकर दिल से विदा कर, चकाचक साफ कर ले।
आइने जैसा कोई मोहरा नही चेहरा नहीं॥

वो चेहरे सब दिखाता, उसका नही चेहरा कोई।
सादगी उसकी, किसी चेहरे पे शरमाता नही॥

बिदाई ऐब से चहिये तो उसकी ओर देखो।
सच्ची बात कहने मे कभी घबराता नही॥

मुरदा आइने में मिला सफाई का हुनर ऐसा।
उस दिल का होगा क्या जिस पे ग़रद छाता नही॥

बता दूँ मिलेगा क्या? मगर न चुप ही रहूँगा।
बोले कहीं महबूब ना राज़दां मैं अच्छा नही॥

रूमी की रूबाईयां

रूमी के दीवाने शम्स-ए-तबरेज़ी में कुल जमा ३५,००० शेरों समेत ३,२३० ग़ज़लें हैं। ४४ तर्जीबन्द (एक छ्न्द) भी जिनमे तक़रीबन १७०० शेर हैं। और २००० के लगभग रूबाईयां भी हैं। उमर खयाम की रूबाईयां काफ़ी प्रसिद्ध हैं, जिसके आधार पर हरिवंश राय बच्चन मधुशाला लिखकर अमर हो गये.. पेश हैं रूमी की चंद रूबाईयां..

एक
वो पल मेरी हस्ती जब बन गया दरया
चमक उठ्ठा हर ज़र्रा होके रौशन मेरा
बन के शमा जलता हूँ रहे इश्क पर मैं
बस लम्हा एक बन गया सफरे उम्र मेरा

दो
हूँ वक्त के पीछे और कोई साथ नही
और दूर तक कोई किनारा भी नही
घटा है रात है कश्ती मैं खे रहा
पर वो खुदा रहीम बिना फज्ल के नही

तीन
पहले तो हम पे फरमाये हजारो करम
बाद में दे दिए हजारो दर्द ओ ग़म
बिसाते इश्क पर घुमाया खूब हमको
कर दिया दूर जब खुद को खो चुके हम

चार
ए दोस्त तेरी दोस्ती में साथ आए हैं हम
तेरे कदमों के नीचे बन गए खाक हैं हम
मज़्हबे आशिकी में कैसे ये वाजिब है
देखे तेरा आलम व तुझे न देख पाएं हम